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Friday, October 01, 2010

........."अश्क".........

यह कैसा अलफ़ाज़ है मेरे मालिक ,
इसके बिना न ग़म की तकलीफ़ है , न तो ख़ुशी का सरूर ही है ........

परत दर परत अपने होने की नुमाइश करता है ,
लपेटे रहता है खुद मैं ही ----- ढेरो टूटे सपने ----ना जाने कितने ही अधूरे नग़मे.........

और यह अश्क जो मेरे दिल से होकर मेरी ----- आँखों में समाया है
क्यों यह मेरा होकर भी .......किसी के लिए ,मुझ से ही दूर होना चाहता है .......

क्यों यह अपने अस्तित्व से ------ जमाने को एक दर्द भरी दास्ताँ बया करता है .........
हर अरमान के टुकड़ो पर , यह सदा ही हँसता हुआ नज़र आता है ..........

मुस्कराता है , खिलखिलाता है , और अपने ही मालिक को तडपा कर चला जाता है ...........जैसे होने में इसके दर्द भरा है ,,अंखियो से इसका एक गहरा रिश्ता है .......

जैसे सागर में पड़े नग की तरह ,,पलकों पे.... शायद ये....... मोती सा जड़ा है ............

1 comment:

Anonymous said...

Ultimate thought